Sunday, 21 June 2020

सब कहेते है मन भटकता है , मनका स्वभाव है भटकना । वोह कहां भी स्थिर नहीं रहता है पर मैं कहता हूँ कि मनका स्वभाव भटकना नहीं है। वो भटकता नहीं है पर वो कुछ ढूँढ रहा है। उसे मालूम नहीं वो क़्या ढूँढ रहा है। आपने कभी मधु मख़ही देखी है? वो गुन गुन कर उड़ती रहती है जब तक उसे मध नहीं मिलता है। एक बार मध भरा फूल दिख लिया कि वो उसपरस्थिर हो कर बैठ जाती है। मधु मख़ही का चाहतभी भटकना नहीं है पर वो मध है । जैसे ही उसेवोमिल गाया वो बैठ जाती है। ठीक उसी प्रकार मन भी कुछ ढूँढ रहा है। अपने मूल को । अपने चिरंतन अमृत को । पर उसे मालूम नहीं वो कहा है । इस लिए वो बाहर के जगत में ढूँढते रहता है। चोरासी लाख योनि में वो भटकते भटकते वो वोही ढूँढ रहा है। शाश्वत को अपने मूल स्वरूप को। जैसे एक बाल रो रहा है परउसे मालूम नहीं होता है क़ि वो क्यू रो रहा है। उसके माँ बाप को मालूम होता है वो क्यू रो रहा है । ठीक उसी प्रकार मनका हाल है। जिसदिन उसे अपना सोर्स मिल जाता है , शाश्वत का पता लग जाता है वो स्थिर हो जाता है। चैतन्य में वो संधान जोड़ लेता है फिर वो शांत हो जाता है। वोइटर्नल उसे मिलजाता है फिर उसे कोई चीज़ में मन लगता नहीं है। और वो ये भी एहसास कर लेता है क़ि जिसको वो बाहार ढूँढ रहा था वो तो उसके भीतर ही था।